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गुलज़ार की ज़ुबानी,भवानीप्रसाद मिश्र के चार कौए Gulzar recites Bhawani Prasad Mishra EXCLUSIVE
पहली बार : मशहूर कवि- फ़िल्मकार गुलज़ार की ज़ुबानी ,भवानीप्रसाद मिश्र के चार कौए I
खटाक मंडली ने क्लासिक कविताएं सुनने-सुनाने सिलसिला शुरू किया।गुलज़ार साहब ने खुश होकर खासतौर से वक़्त निकाला और इस बार ख़ुद भी हिस्सा लिया।
भवानी प्रसाद मिश्र की यह कविता सबसे पहले डॉ मुरली मनोहर जोशी ने गुलज़ार से साझा की थी और आख़िरकार यहाँ तक पहुंची।
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Extra Read Reference : #Emergency (1975) "वाकई 19 महीने की वह रात हमारे लोकतांत्रिक समय का सबसे बड़ा अंधेरा पैदा करती रही. लेकिन, इस अंधेरे में भी कई लेखक रहे जिन्होंने अपने प्रतिरोध की सुबहें-शामें रचीं.हिंदी के गांधीवादी कवि भवानी प्रसाद मिश्र ने तय किया कि वे आपातकाल के विरोध में हर रोज़ सुबह-दोपहर-शाम कविताएं लिखेंगे. अपने इस प्रण को उन्होंने यथासंभव निभाया भी. बाद में ये कविताएं 'त्रिकाल संध्या' के नाम से एक संग्रह का हिस्सा बनीं. संग्रह की पहली ही कविता इमरजेंसी के कर्ता-धर्ताओं पर एक तीखा व्यंग्य है- ( Ref. BBC Hindi /Emergency / इमरजेंसी, जब कविताओं की धार से लड़ी गई लड़ाई)
बहुत नहीं सिर्फ़ चार कौए थे काले / भवानीप्रसाद मिश्र
बहुत नहीं सिर्फ़ चार कौए थे काले,
उन्होंने यह तय किया कि सारे उड़ने वाले
उनके ढंग से उड़े,, रुकें, खायें और गायें
वे जिसको त्यौहार कहें सब उसे मनाएं
कभी कभी जादू हो जाता दुनिया में
दुनिया भर के गुण दिखते हैं औगुनिया में
ये औगुनिए चार बड़े सरताज हो गये
इनके नौकर चील, गरुड़ और बाज हो गये.
हंस मोर चातक गौरैये किस गिनती में
हाथ बांध कर खड़े हो गये सब विनती में
हुक्म हुआ, चातक पंछी रट नहीं लगायें
पिऊ-पिऊ को छोड़े कौए-कौए गायें
बीस तरह के काम दे दिए गौरैयों को
खाना-पीना मौज उड़ाना छुट्भैयों को
कौओं की ऐसी बन आयी पांचों घी में
बड़े-बड़े मनसूबे आए उनके जी में
उड़ने तक तक के नियम बदल कर ऐसे ढाले
उड़ने वाले सिर्फ़ रह गए बैठे ठाले
आगे क्या कुछ हुआ सुनाना बहुत कठिन है
यह दिन कवि का नहीं, चार कौओं का दिन है
उत्सुकता जग जाए तो मेरे घर आ जाना
लंबा किस्सा थोड़े में किस तरह सुनाना ?
-भवानीप्रसाद मिश्र (1913-1985)